आमुख
आमुख
मेरी कविताएं ही मेरा आमुख है। मैं पिंड से ब्रह्मांड में विचरण
कर फिर लौट आता हूँ । सन 1949 से मैंने लिखना शुरू किया था। लेखन में मेरी माँ,पत्नी, सगे-संबंधी, घटना, दुर्घटना, मेरे छात्र-छात्रियाँ, बेटे-बेटियाँ, मेरे मित्र, मेरे शत्रु, सभी
मेरे प्रेरणा के स्रोत बने हें। 1957 से 1962 के बीच विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
मेरी कविताएं प्रकाशित हुई थी। जब मेरी नीरवता कछुए की भांति मंद गति से सभी स्मृतियों
का मन ही मन याद करता हूँ तो मैं रोमांचित हो उठता हूँ। मेरे पास आनंद का कोई
उद्वेग नहीं है। मेरा मन दुख में चक्कर काटते गहराता जाता है।
मेरे बड़े मामा वेदांती थे। उनसे छोटे वाले मामा कृष्ण भक्त थे। मेरे
बचपन के दिनों की कविताओं में किशोर कृष्ण,किशोरावस्था में परमब्रह्म,युवावस्था में जगन्नाथ की वंदना मिलती है,मगर प्रौढ़ावस्था
में मेरे अहंकार को परमब्रह्म ने धूल-धूसरित कर दिया। मेरे वार्धक्य के गीता के
विश्वरूप मेरे साधना के आराध्य है। मेरे पिताजी तालचेर के आग्नेय स्वाधीनता
संग्रामी थे। ढेंकानाल के जीवन-जंजाल में फँसकर अपने आप को उन्होंने दबाकर रखा।
मेरे रगों में मेरे देशात्मबोध का लहू, हृदय में दादाजी, मामाजी, माँ और धर्मपत्नी के आराध्य का संस्कार
बनकर दौड़ने लगा था। मेरे कवि गुरु थे श्री राधामोहन गडनायक और अनंत पटनायक। गांधी, गोपबंधु, जय प्रकाश और राधाकृष्ण के व्यक्तित्व प्रभाव
से मेरा जीवन हमेशा गतिशील बना रहा। गणित की शिक्षा मेरे लिए संगीत थी। मैं गणित
में संगीत खोजता हूँ, भगवान की खोज करता हूँ, ठाकुर का अनुसंधान करता हूँ। मेरे रामायण गुरु श्री शिशिर कुमार
मुखोपाध्याय ने 'ठ' से 'पाठ' सिखाया था। रेवेंसा में कला विभाग से संबंध
रखने पर भी मुझे कवि जयंत महापात्र अच्छे लगते थे। मेरे प्रिय अध्यापक श्री गौरी
कुमार ब्रह्म और श्री जयकृष्ण मिश्रा। मेरे शिक्षण गुरु श्री बांछानिधि शतपथी, श्री नारायण पति और श्री नरसिंह बेहेरा थे। यह संकलन मेरे बचपन के दिनों
से लगाकर आज तक ईश्वर को देखने, सोचने,
समझने और प्रेम करने के प्रयास का प्रतिफल "चकाड़ोला की ज्यामिति" के रूप
में संकलित हुआ है।
मुझे एंपीडोकलस (Empedocles) की पंक्ति याद आती है कि
भगवान एक ऐसा वृत्त है, जिसका केंद्र सब जगह है, मगर परिधि कहीं पर भी नहीं है। इस दृष्टिकोण से मेरी चकाड़ोला ज्यामिति का
जन्म होता है। मेरे मस्तिष्क में ईश्वरीय तत्व के बारे में कुछ लिखने के लिए गणित
की भाषा उद्वेलित होती है।
जैसे ईश्वर एक
असीम संख्या की श्रेणी में आता है, जिसकी समष्टि अनंत व चकाड़ोला की
तरह है, यह एक ऐसा प्रतीक है, जिसके
माध्यम से ईश्वर के सारे रूपों को समझा जा सकता है। मेरे प्रकाशित कविता-संकलन रात
में धूप की तरह अर्थात बहुत ही कम है। फिर भी ओड़िया साहित्य में अपनी उपस्थिति
दर्ज कराते रहे है, श्वेत पत्र-1,
श्वेत पत्र-2, श्वेत पत्र-3 के रूप में।
मेरी अनेक कविताओं में मेरी स्वर्गीय धर्मपत्नी, ईश्वर के
विषय और देश की समस्याओं का वर्णना मिलता है। अभी भी मैं लिखता हूँ और यह भी जानता
हूँ कि मेरा लिखना मृत्यु पर्यंत बंद नहीं होगा। मेरा लेखन प्रकाशित न भी हो तो भी
मुझे कोई दुख नहीं है । मैं जहां भी जाता हूँ, नए-नए कवियों
का बीजारोपण करता हूँ। कवि-सम्मेलन आयोजित करना मेरा एक गहरा नशा है। ओड़िया भाषा
के प्रति आदर में वृद्धि करने के साथ-साथ नए-नए कवियों को पैदा करते हुए आगे बढ़ते
जाता हूँ। सभी को मेरा प्यार, शत्रु को भी मेरा नमस्कार।
विरंचि महापात्र
तालचेर,ओड़िशा
Comments
Post a Comment