51 से 60 तक
51
आंसुओं से विश्वरूप की पूजा।
कविताओं में सजा देता हूँ मैं
घुटनों के बल चलते बाल गोपाल को।
जैसे वह युगों-युगों से मेरा नाती हो।
उग्रसेन की उग्रता भूलकर मैं।
देखता हूँ तुम्हारा विश्वरूप
विश्वरूप में नन्हें शिशु हो तुम
गोद में लेकर तुम्हें,
चुंबन और आंसुओं की बरसात कर
उड़ेल देता हूँ हृदय का सारा प्रेम।
कान्हा! तुम आज दुर्गा रूप में,
लक्ष्मी रूप में,
सरस्वती रूप में,
मातृ रूप में,
शक्ति रूप में
सच में, दशहरे का प्रणाम स्वीकार करो
माँ मुझे सहन शक्ति दो।
52
आकाश अनंत ताराओं का समुद्र
सीमाहीन शामियाना।
शामियाना के नीचे चकाड़ोला विराजमान हैं।
विश्वरूप की अनाज घानी के आँगन में।
जन्म-मरण महाशून्य के प्रांगण में
मनुष्य जाति के प्रतिनिधि अर्जुन हम।
तुम्हें देख नहीं पाए विश्वरूप में।
अविश्वास का कारण क्या?
गीता की गिटार
विश्वबांसुरी बजती है
मेरी चिंता,चेतना तर्क-वितर्क खो जाते है
मानदंड के पैमाने नहीं है तुम्हारे पास
मायने नहीं है तुम्हारे पास
सारे आकाश में तुम्हारे डोले तैरते है
कभी-कभी
क्षुद्र-क्षुद्र परमाणु के रूप में।
कभी-कभी फिर करोड़ों सूर्यों के गोलकों की तरह।
भय और रोमांच की पुलक।
पुलक के मुल्क में मैं अचेत हो जाता हूँ।
53
अ-उ-म ओम गोलक में
आवर्तन में,
परिक्रमण में,
विवर्तन में
मैं चेतना का चैतन्य?
विवर्तन और कीर्तन में होता है जन्म
मरण के 'म' के चरण में चारण,
उसके बाद फिर सृष्टि
अ-उ-म, अ-उ-म, अ-उ-म।
ओम शांति,ओम शांति,ओम शांति
संसार भर की भ्रांति मेरी दूर करो
इस नश्वर संसार के ईश्वर
तुम कहो, कहाँ पर हो?
ढेंकानाल के कपिलास में या
हिमालय के कैलाश में करते हो तांडव
हे शिव शंकर नमः शिवाय का सौरभ।।
54
नहीं निस्तार,
प्राण विस्तार,चकाड़ोला के चक्के गढ़ने का फंदा
रतिक्रीड़ा उन्मादन में प्राण विस्तार।
कामना,वासना,जीव-संग्राम बहु विस्तार,
पारावार की तरह पारिवारिक पुरुष तक।
नहीं निस्तार होगा विस्तार,
जीवन धर्म विस्तार।
मरण धर्म विस्तार।
पंचभूत शरीर पांचों में मिल जाता है।
आत्मा या प्राण शक्ति मुक्ति।
गोल-गोल घूमता है ओम आकाश अणाकार।
पाँव के नीचे आकाश।
माथे के ऊपर आकाश।
अणु-अणु में आकाश।
अणु के अंदर आकाश।
आकाश परम आत्मा या चकाड़ोला।
आँखों में मेरे चकाड़ोला की चक-चक लाइट।।
55
प्रीति ओंकार
विष्णु का बेणू ओंकार।।
सेवा ओंकार
देवा ओंकार
योग ओंकार
तप ओंकार
शंकर का त्याग ओंकार।।
क्रम वर्धमान चकाड़ोला का
आलोक,पुलक, गोलक, मूलक
जगन्नाथ का
परंब्रहम पुरुषोत्तम
विश्वजनक या विश्व जननी या उभय
मुझे आदि अंत भी दिखाओ।।
हे गीता के विश्वरूप,
तुम बंसी बजाते हो,
तुम डमरू बजाते हो,
तुम शंख बजाते हो,
मरण का हरण करो जीवन विश्व के मोक्ष से,
मिलेंगे या फिर तुम्हारे करुणा कक्ष में।।
56
गाछ की गहल,चिड़िया की चहल
ठंडी छांव बगीचे की मंद-मंद हवा
मन अनुभव करती है
मानो इस जगह पर बुद्ध अथवा
वेदकालीन
तपस्वीगण तप करते थे।
शांत शीतल प्रकृति घिरे
वातावरण में
किसी पुराने युग की
ॐकार सुनाई देती वहाँ से
जीवन-मरण ब्रह्मस्पर्श
संन्यास और दूसरा संसार
बंधन और कामनाओं के ईंधन के
सामने वाले मेरे संतरे के पेड़
जिसके नीचे बैठकर
तपस्या करता हूँ मैं
ॐ नमः शिवाय
ॐ नमः नारायणाय
जगन्नाथ शरणम् गच्छामि।
57
चकाड़ोला तैरता है तारापुंज में
पृथ्वी,सागर,आकाश में
व्योम के ऊपर ॐ
शंखनाद में सुनाई देता है ओम ओम
मध्याकर्षण खेल
विद्युत-चुंबक-आलोक पुलक मुल्क,
नजर नहीं जा पाती,बचे रह जाते हैं।
विश्व के रहस्य,
रहस्यमय,
आविष्कार, आविष्कार के बाद
रह जाते हैं आविष्कार
आविष्कार की सीमा को लांघ कर,
उद्भावन करो कृष्ण अथवा अल्लाह अथवा गॉड
हम पानी और कीचड़ की हरी फसलें
रक्त,मांस,हाड़,चमड़े का मानस केंद्र-बिन्दु,
हृदय की धड़कन,
प्राणवायु ग्रहण,अप्राणवायु विसर्जन
फिर सूर्य किरणों से रंध्रों में प्रकाश-विश्लेषण
सूर्य किरणों का ईंधन।
58
जी जान लगाकर प्रयास किया
प्राणवायु और अप्राणवायु के संतुलन में?
श्वासक्रिया में, विश्वास में,
बिना विश्वास के प्राण कुछ है?
प्राण वायु से खाद्य दहन और शक्ति सर्जन
बातों-बातों में कहते हैं प्राण उसके उड़ गए
उसका जीवन डूब गया?
जीवन क्या?
मृत्यु क्या?
मरणोत्तर जीवन क्या?
जीवन से पहले जननी जठर में?
जनक जननी मिलन से जीव स्थापित होता है गर्भ में
गर्भ वेदना मृत्यु के समान
जननी की गोद में शिशु
यीशू की तरह आहा कष्ट पाने पर शिशु का जन्म होता है
जनक महान,जननी महान,जीवन महान
स्तन्य महान,शिशु महान
ईश्वर की सृष्टि में पवित्र क्रिया प्रजनन
सकल सृष्टि भगवती हो या भगवान।
59
कितने कष्ट से,
कितने नष्ट से,
चन्दा मामा के देश की ओर
खोलपा से जाते हैं,
इस पर भी मनुष्य का अहंकार कितना
ईश्वर कणिका की खोज करते हें।
मगर दर्शन में ईश्वर वह नहीं है।
खुद न जाकर दूरबीन में
सूक्ष्मदर्शी में बहुत कुछ देखा जा चुका है।
फिर भी सारे रोग ठीक नहीं किए जा सके
नारद की तरह महाशून्य में उड़ न पाए हम।
हनुमान की तरह आकाश में उड़ न पाए हम
बिना उड़ने वाले पंखों के
बिना नाव के तैरा जा सकता है,
किन्तु बिना हवाई जहाज के हम उड़ नहीं सकते
शरीर की सारी अंग प्रणालियों की
सारी गणित खत्म नहीं हुई
सारी ज्यामिति पूरी नहीं हुई,
सारा विज्ञान पूरा नहीं हुआ
अज्ञानी मैं चकाड़ोला की कामना करता हूँ।
सांसारिक तपों की सारी वेदना,पीड़ा सहकर भी।।
60
चकाड़ोला रे
गोल आँखों वाले
जगन्नाथ कालिया रे
बांक-चुलिया रे
मुझे पहचान दो तुम कन्हेई।
कन्हेई तुम्हारा सृष्टि का पथ
दृष्टिपथ
संस्कृति के पथ
मोक्ष के रथ
का परिचय करा दो,
कन्हेई रे मुझे परिचय करा दो
कामना कारावास के कंस का
बहन के वंश के हत्यारे का,
वसुदेव को दिखाया था अपना रूप।
नाना उग्रसेन को दिखाया था अपना रूप
जगन्नाथ कालिया रे
अर्जुन को दिखाया विश्वरूप
वह मुझे दिखा दो कन्हेई
अपने घुटनों के बल चलते बालरूप को
दादा रूप में तुम्हें प्यार करूंगा रे
चुंबन दूंगा रे
और नाचूंगा पागलों की तरह आँसू बहाते।
आंसुओं से विश्वरूप की पूजा।
कविताओं में सजा देता हूँ मैं
घुटनों के बल चलते बाल गोपाल को।
जैसे वह युगों-युगों से मेरा नाती हो।
उग्रसेन की उग्रता भूलकर मैं।
देखता हूँ तुम्हारा विश्वरूप
विश्वरूप में नन्हें शिशु हो तुम
गोद में लेकर तुम्हें,
चुंबन और आंसुओं की बरसात कर
उड़ेल देता हूँ हृदय का सारा प्रेम।
कान्हा! तुम आज दुर्गा रूप में,
लक्ष्मी रूप में,
सरस्वती रूप में,
मातृ रूप में,
शक्ति रूप में
सच में, दशहरे का प्रणाम स्वीकार करो
माँ मुझे सहन शक्ति दो।
52
आकाश अनंत ताराओं का समुद्र
सीमाहीन शामियाना।
शामियाना के नीचे चकाड़ोला विराजमान हैं।
विश्वरूप की अनाज घानी के आँगन में।
जन्म-मरण महाशून्य के प्रांगण में
मनुष्य जाति के प्रतिनिधि अर्जुन हम।
तुम्हें देख नहीं पाए विश्वरूप में।
अविश्वास का कारण क्या?
गीता की गिटार
विश्वबांसुरी बजती है
मेरी चिंता,चेतना तर्क-वितर्क खो जाते है
मानदंड के पैमाने नहीं है तुम्हारे पास
मायने नहीं है तुम्हारे पास
सारे आकाश में तुम्हारे डोले तैरते है
कभी-कभी
क्षुद्र-क्षुद्र परमाणु के रूप में।
कभी-कभी फिर करोड़ों सूर्यों के गोलकों की तरह।
भय और रोमांच की पुलक।
पुलक के मुल्क में मैं अचेत हो जाता हूँ।
53
अ-उ-म ओम गोलक में
आवर्तन में,
परिक्रमण में,
विवर्तन में
मैं चेतना का चैतन्य?
विवर्तन और कीर्तन में होता है जन्म
मरण के 'म' के चरण में चारण,
उसके बाद फिर सृष्टि
अ-उ-म, अ-उ-म, अ-उ-म।
ओम शांति,ओम शांति,ओम शांति
संसार भर की भ्रांति मेरी दूर करो
इस नश्वर संसार के ईश्वर
तुम कहो, कहाँ पर हो?
ढेंकानाल के कपिलास में या
हिमालय के कैलाश में करते हो तांडव
हे शिव शंकर नमः शिवाय का सौरभ।।
54
नहीं निस्तार,
प्राण विस्तार,चकाड़ोला के चक्के गढ़ने का फंदा
रतिक्रीड़ा उन्मादन में प्राण विस्तार।
कामना,वासना,जीव-संग्राम बहु विस्तार,
पारावार की तरह पारिवारिक पुरुष तक।
नहीं निस्तार होगा विस्तार,
जीवन धर्म विस्तार।
मरण धर्म विस्तार।
पंचभूत शरीर पांचों में मिल जाता है।
आत्मा या प्राण शक्ति मुक्ति।
गोल-गोल घूमता है ओम आकाश अणाकार।
पाँव के नीचे आकाश।
माथे के ऊपर आकाश।
अणु-अणु में आकाश।
अणु के अंदर आकाश।
आकाश परम आत्मा या चकाड़ोला।
आँखों में मेरे चकाड़ोला की चक-चक लाइट।।
55
प्रीति ओंकार
विष्णु का बेणू ओंकार।।
सेवा ओंकार
देवा ओंकार
योग ओंकार
तप ओंकार
शंकर का त्याग ओंकार।।
क्रम वर्धमान चकाड़ोला का
आलोक,पुलक, गोलक, मूलक
जगन्नाथ का
परंब्रहम पुरुषोत्तम
विश्वजनक या विश्व जननी या उभय
मुझे आदि अंत भी दिखाओ।।
हे गीता के विश्वरूप,
तुम बंसी बजाते हो,
तुम डमरू बजाते हो,
तुम शंख बजाते हो,
मरण का हरण करो जीवन विश्व के मोक्ष से,
मिलेंगे या फिर तुम्हारे करुणा कक्ष में।।
56
गाछ की गहल,चिड़िया की चहल
ठंडी छांव बगीचे की मंद-मंद हवा
मन अनुभव करती है
मानो इस जगह पर बुद्ध अथवा
वेदकालीन
तपस्वीगण तप करते थे।
शांत शीतल प्रकृति घिरे
वातावरण में
किसी पुराने युग की
ॐकार सुनाई देती वहाँ से
जीवन-मरण ब्रह्मस्पर्श
संन्यास और दूसरा संसार
बंधन और कामनाओं के ईंधन के
सामने वाले मेरे संतरे के पेड़
जिसके नीचे बैठकर
तपस्या करता हूँ मैं
ॐ नमः शिवाय
ॐ नमः नारायणाय
जगन्नाथ शरणम् गच्छामि।
57
चकाड़ोला तैरता है तारापुंज में
पृथ्वी,सागर,आकाश में
व्योम के ऊपर ॐ
शंखनाद में सुनाई देता है ओम ओम
मध्याकर्षण खेल
विद्युत-चुंबक-आलोक पुलक मुल्क,
नजर नहीं जा पाती,बचे रह जाते हैं।
विश्व के रहस्य,
रहस्यमय,
आविष्कार, आविष्कार के बाद
रह जाते हैं आविष्कार
आविष्कार की सीमा को लांघ कर,
उद्भावन करो कृष्ण अथवा अल्लाह अथवा गॉड
हम पानी और कीचड़ की हरी फसलें
रक्त,मांस,हाड़,चमड़े का मानस केंद्र-बिन्दु,
हृदय की धड़कन,
प्राणवायु ग्रहण,अप्राणवायु विसर्जन
फिर सूर्य किरणों से रंध्रों में प्रकाश-विश्लेषण
सूर्य किरणों का ईंधन।
58
जी जान लगाकर प्रयास किया
प्राणवायु और अप्राणवायु के संतुलन में?
श्वासक्रिया में, विश्वास में,
बिना विश्वास के प्राण कुछ है?
प्राण वायु से खाद्य दहन और शक्ति सर्जन
बातों-बातों में कहते हैं प्राण उसके उड़ गए
उसका जीवन डूब गया?
जीवन क्या?
मृत्यु क्या?
मरणोत्तर जीवन क्या?
जीवन से पहले जननी जठर में?
जनक जननी मिलन से जीव स्थापित होता है गर्भ में
गर्भ वेदना मृत्यु के समान
जननी की गोद में शिशु
यीशू की तरह आहा कष्ट पाने पर शिशु का जन्म होता है
जनक महान,जननी महान,जीवन महान
स्तन्य महान,शिशु महान
ईश्वर की सृष्टि में पवित्र क्रिया प्रजनन
सकल सृष्टि भगवती हो या भगवान।
59
कितने कष्ट से,
कितने नष्ट से,
चन्दा मामा के देश की ओर
खोलपा से जाते हैं,
इस पर भी मनुष्य का अहंकार कितना
ईश्वर कणिका की खोज करते हें।
मगर दर्शन में ईश्वर वह नहीं है।
खुद न जाकर दूरबीन में
सूक्ष्मदर्शी में बहुत कुछ देखा जा चुका है।
फिर भी सारे रोग ठीक नहीं किए जा सके
नारद की तरह महाशून्य में उड़ न पाए हम।
हनुमान की तरह आकाश में उड़ न पाए हम
बिना उड़ने वाले पंखों के
बिना नाव के तैरा जा सकता है,
किन्तु बिना हवाई जहाज के हम उड़ नहीं सकते
शरीर की सारी अंग प्रणालियों की
सारी गणित खत्म नहीं हुई
सारी ज्यामिति पूरी नहीं हुई,
सारा विज्ञान पूरा नहीं हुआ
अज्ञानी मैं चकाड़ोला की कामना करता हूँ।
सांसारिक तपों की सारी वेदना,पीड़ा सहकर भी।।
60
चकाड़ोला रे
गोल आँखों वाले
जगन्नाथ कालिया रे
बांक-चुलिया रे
मुझे पहचान दो तुम कन्हेई।
कन्हेई तुम्हारा सृष्टि का पथ
दृष्टिपथ
संस्कृति के पथ
मोक्ष के रथ
का परिचय करा दो,
कन्हेई रे मुझे परिचय करा दो
कामना कारावास के कंस का
बहन के वंश के हत्यारे का,
वसुदेव को दिखाया था अपना रूप।
नाना उग्रसेन को दिखाया था अपना रूप
जगन्नाथ कालिया रे
अर्जुन को दिखाया विश्वरूप
वह मुझे दिखा दो कन्हेई
अपने घुटनों के बल चलते बालरूप को
दादा रूप में तुम्हें प्यार करूंगा रे
चुंबन दूंगा रे
और नाचूंगा पागलों की तरह आँसू बहाते।
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