भूमिका


समर्पण

ग्रीक दार्शनिक एंपीडोकलस के कथन “God is a Circle whose centre is everywhere and circumference is nowhere”तथा विश्व विख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन के ऊर्जा-संहति सूत्र को चरितार्थ करते भारतीय दर्शन में अणु,परमाणु,जीवाणु,स्नायु-तंत्र,बाहरी रूपरेखा से लेकर आंतरिक जगत के सौंदर्य-बोध,आत्मा का देश,तृष्णा, अनंत आकांक्षाएँ,प्रीति,प्रत्यय और विवेक को जागृत करने वाले विश्व-नियंता जगन्नाथ के प्रतीक ‘चकाडोला’ के समक्ष साष्टांग समर्पण के साथ-
                                                           -दिनेश कुमार माली

























भूमिका
तालचेर के प्रख्यात कवि विरंचि महापात्र के अद्यतन कविता-संग्रह "चकाड़ोला की ज्यामिति" को ‘प्रबंध-काव्य’ की श्रेणी में गिना जाए तो इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस संग्रह में संकलित 68 कविताएं चकाड़ोला पर ही आधारित हैं। 'चकाडोला’ अर्थात् चक्र जैसी गोल आँखों की पुतलियाँ। राजस्थानी भाषा में डोला शब्द की जगह बोलचाल की भाषा में 'डोरा' शब्द का प्रयोग होता है। उदाहरण के तौर पर पराए धन या पराई स्त्री पर डोरे डालने का अर्थ उनकी तरफ ललचाई दृष्टि से देखना,राजस्थानी भाषा की एक लोकोक्ति का अर्थ है।  
बिरंचि महापात्र के प्रारम्भिक व्यावसायिक जीवन की शुरुआत एक विज्ञान शिक्षक के रूप में हुई,जो अंतराल में ओडिशा सरकार के शिक्षा विभाग में निरीक्षक के रूप में समाप्त हुई।  उन्होंने अपने छात्र जीवन से लेकर आज तक इस संग्रह के लिए जितनी भी कविताएं लिखी हैं, सभी का आधार 'चकाड़ोला' है। हिन्दी पाठकों के लिए चकाड़ोला का अर्थ समझने में थोड़ी- सी परेशानी होगी क्योंकि चकाड़ोला जगन्नाथ जी का प्रतीक है तथा दारू यानि नीम-काष्ठ से बनी शालभंजिका मूर्तियों में बनी बड़ी-बड़ी गोलाकार आँखों के प्रतीक भगवान जगन्नाथ को  चकाड़ोला नाम से संबोधित किया गया है। अब प्रश्न यह उठता है-भगवान जगन्नाथ की आँखें चक्राकार अर्थात वृत्ताकार ही क्यों हैं, दीर्घ वृत्ताकार,वर्गाकार या त्रिभुजाकार ज्यामितिक आकार में क्यों नहीं? अपने अंतर्जगत में झाँकने पर आपको ज्ञात होगा कि वृत्त ही एक ऐसी ज्यामितिक सरंचना है, जिसमें परिधि के अनंत बिन्दुओं से केंद्र बिन्दु की दूरी एक समान है अर्थात् भगवान के लिए सृष्टि के सारे जीव एक समान होते हैं, उनके प्रति किसी भी भेदभाव की दृष्टि भगवान द्वारा नहीं रखी जाती हैं। 
दूसरा अर्थ यह भी लिया जाता है कि परमाणुओं से लेकर खगोलीय पिंड जैसे सूर्य,चन्द्र, निहारिका,उपग्रह सभी गोलाकार होते हैं अतः सृष्टि के स्रष्टा को किसी गोलाकार आकृति के माध्यम से व्यंजित करना उचित है। यह जगन्नाथ संस्कृति का एक मुख्य पहलू भी है। 
कवि की सारी कविताओं में आध्यात्मिकता के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी समावेश है। उनके अनुसार जगन्नाथ रूपी वृत्त का केन्द्रबिन्दु सृष्टि में सब जगह है मगर उसकी परिधि अपरिमेय है,सीमाहीन है। इसी प्रकार से गणितीय सूत्र में कवि ने ईश्वर की परिभाषा "limit M/D=G” जहां M=Man,D=Desire तथा G=God से अभिप्रेत है। अगर डिजायर शून्य होती है तो मनुष्य ईश्वर तुल्य हो जाता है और उसका परिमाण अनंत होता है। इस प्रकार से अपनी कविताओं में कवि ने अणु,परमाणु,आइंस्टीन के सूत्र(E=mc2), शरीर के जीवाणु,स्नायु-तंत्र,बाहरी रूपरेखा से लेकर आंतरिक जगत के सौंदर्य-बोध,आत्मा का देश,तृष्णा, अनंत आकांक्षाएँ,प्रीति,प्रत्यय और विवेक आदि अमूर्त शब्दावली की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। भौतिक,रसायन और विज्ञान में भगवान का अनुसंधान कोई कवि किस तरह कर सकता है,उसका जीते-जागते उदाहरण कवि बिरंचि महापात्र है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में अगर विज्ञान अध्यात्म से जुड़ जाती है तो विश्व के अखिल मानव जाति की रक्षा के साथ-साथ विश्व-बंधुत्व की भावना एक प्रतिनिधि आकांक्षा के रूप में उभर कर सामने आती है। ऐसी ही कालजयी प्रतिनिधि कविता वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले कवि की इन पंक्तियों में प्रकट होती है:-  
कार्बन, ऑक्सीजन,हाइड्रोजन 
और कार्बन डाइऑक्साइड के अणु 
परमाणु मिलकर 
जीवन में किस तरह एनर्जी लाते हैं? 
ये अणु-परमाणु भावनाओं से जुड़कर 
चैतन्य की चेतना में संकीर्तन करते हैं  
प्रेम का, विश्वास का? 
घृणा के विस्फोट के सारे स्विच बंद कर 
पलक झपकते ही 
ये अणु सोचने लगते हैं बैठकर 
गणित के सूत्रों में 
आइंस्टाइन की अद्भुत मेधा में। 
एमिनो एसिड के न्यूक्लियस को 
देखना चाहते हैं। 
आणविक पर्यवेक्षण में 
मेरी वेदना के टेस्ट टयूब में 
मेरा अज्ञान आज रो-रोकर मरता है। 
दुनिया में सारे तटों पर 
सामुद्रिक प्रीति के लिए। 
हे चकाडोला!
तुम्हारे पास प्रेम  
और 
शान्ति की भीख मांगता हूँ। 

गीता के चतुर्थ अध्याय के 38 वें श्लोक में यह आता है - तदविधि प्रणिपातेन प्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यंति ज्ञानम् ज्ञान तत्वदर्शभि:।। गीता के इस श्लोक का पूर्णतया अनुकरण करते हुए कवि जहां खगोलीय पिंडों,अणु-परमाणुओं में आइंस्टीन के समीकरण, जीव-कोशिका में DNA,RNA के बारे में जानने की जिज्ञासा के साथ-साथ प्रकृति के अनसुलझे प्रश्नों जैसे- मृत्यु के उपरांत के जीवन की संभावना जैसे खत्म न होने वाले प्रश्नों के लिए चकाडोला के समक्ष सम्पूर्ण समर्पण भाव से साष्टांग दंडवत होकर अपने आपको अबोध शिशु मानना ही इन प्रश्नों के उत्तर खोजने की प्रक्रिया है।उनकी कविताओं में भारतीय दर्शन-शास्त्रों के प्रमुख सूत्रों जैसे ‘सो अहम’,‘को अहम’,‘इदम् न मम’,‘मा फलेषु कदाचन’जैसे वाक्यांशों की भरमार दिखाई देती हैं। दार्शनिक महापुरुषों की तरह कवि अपने उत्तर की तलाश में अपनी कविताओं में भारतीय दर्शन के अनसुलझे प्रश्नों से साक्षात्कार करते हुए अपने भीतर उलझ जाते हैं,इस अंतर्द्वंद्व से मुक्ति पाने के लिए, आशा भरी निगाहों से कवि चकाडोला की तरफ आजीवन अनवरत निहारते हैं।  
सृष्टि,स्थिति और प्रलय का गोलक 
'ॐ' ही विश्व 
अबोध व्याप्ति का सीमाहीन 
महाशून्य। 
निहारिका, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह 
कृष्णगर्त्त  
और अनेक 
असंख्य अनजान,  
बुद्धि 
से परे 
असंभव दूर 
आलोक वर्ष 
उसके भीतर जड़ और जीवन 
फिर अणु,परमाणु,इलेक्ट्रॉन,न्यूट्रोन  
पोजिट्रोन, ग्लुआन 
और उसके बाद भी हो सकते हैं अनेक कण। 
वस्तु और शक्ति के समीकरण। 
अबोध, अबोध प्रभु 
तुम्हारी सृष्टि में। 
जीवन कोश में फिर 
जीन्स, क्रोमोज़ोम, डी.एन.ए, आर.एन.ए  
अंतहीन जिज्ञासा, अंतहीन गवेषणा। 
जीवन क्या? 
मृत्यु क्या? 
मृत्यु के बाद भी है क्या जीवन? 
अनेक प्रश्न 
प्रश्नों के उत्तर 
खत्म न होने वाले प्रश्नावली। 
अशेष का शेष कहाँ 
कहीं कुछ नहीं दिखता है। 
प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है। 
चकाड़ोला की ज्यामिति  
अबोध वस्तु, शक्ति और जीवन का 
अप्रमेय,व्यापक,समन्वय   
हे चकाडोला 
मैं बोकाडोला क्या देख पाऊँगा 
छोड़, 
क्षमाकर मैं अबोध शिशु की हठ  
आपकी महान सत्ता को समझने की। 
यह कहा जा सकता है कि कवि पूर्णतया अज्ञात परमसत्ता को जानने की गहन जिज्ञासा रखते हैं,मगर वह धर्म-भीरु बिलकुल नहीं है,तभी तो चकाडोला के समक्ष हो रहे धर्म के नाम पर पाखंडों का खुलकर विरोध करते हैं,इसलिए हिन्दू धर्म के अलावा दूसरे धर्मावलम्बियों के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश न कराने पर एतराज जताते हुए कहते हैं - "हमें चकाडोला अल्लाह दिखाओ,ईसा दिखाओ"वाली कविता की पंक्ति के साथ-साथ म्लेच्छ भक्त सालवेग और शूद्र भक्त दासिया का उदाहरण भी देते हैं। कवि कबीर की भांति “न मैं मंदिर न मैं मस्जिद न काबे कैलाश में” की विचारधारा पर अपनी साँसों में साँसों की सूक्ष्म ध्वनि “सो अहम” की पहचान करना आध्यात्मिक पराकाष्ठा को दर्शाते हुए किसी भक्त कवि की तरह पहली सांस और अंतिम सांस को जीवन के यथार्थ सूत्रों से जोड़कर भारतीय दर्शन-शास्त्रों की गूढ़ता का सूत्रपात किया है। सिकंदर महान की तरह मृत्यु के समय अपने खुली मुट्ठियाँ दिखाने का दृष्टांत कवि की इन पंक्तियों में उजागर होता है:- 
जन्म के समय 
ऊंआ, ऊंआ रोते पूछता है 
"मैं कौन,मैं कौन, को अहम?"
मरते समय अंतिम सांस  
देती है उत्तर "मैं वही हूँ, मैं वही हूँ, सो अहम?" 
जन्म के समय के नरम हाथों की मुट्ठियाँ  
समझाती है 
सभी मेरे, सभी मेरे,सभी मेरे 
मरते समय खुले निर्जीव हाथ 
समझाते हैं, खुलम-खुल्ला, 
मेरे साथ कुछ नहीं जाएगा 
अकेला चलो, अकेला।। 
कवि धार्मिक पाखंडों पर भी कुठाराघात करने से नहीं चुकते हैं,धार्मिक मत-मतांतरों से निरपेक्ष होकर चकाडोला के विश्वरूप का ध्यान कर वह आत्म-मोहित से हो जाते हैं तथा धार्मिक दंगे-फसादों से दूर रहने की सलाह देते हैं। इस संदर्भ में कवि की निम्न पंक्तियाँ उनके धर्म निरपेक्ष भाव को दर्शाती है:- 
पंडो की दुष्टता, पंडिताई के 
घमंड में 
हे मेरे प्रियतम चकाड़ोला! 
तुम तो मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में  
आकाश में, सागर की नीलिमा में, 
सागर तट पर, मर्त्य धूल पर, 
बेईमान लोगों के कोठों पर  
बाहर 
नीचे, ऊपर 
सब तरफ तो तुम ही तुम । 
मैं क्या चैतन्य की चेतना ? 
अर्जुन वेदना और विश्वरूप दर्शन पर मुग्ध शिष्य ? 
गीता के गिटार वादक! 
चारों तरफ नारद मुनि की तरह 
तप करते-करते 
जप करते-करते, 
प्रिय विष्णु की महिमा गान में रत । 
सही कहता हूँ, झगड़ा-झंझट नहीं लगाता ।। 
 अपनी चेतना के उच्चतम स्तर पर वे अपनी कविताओं में विज्ञान के नास्तिकवाद को खुली चुनौती देते हैं कि- अगर ब्रह्मांड के नियामक गॉड(ईश्वर) का अस्तित्व नहीं होता तो आखिरकार वैज्ञानिक गॉड पार्टिकल(ईश्वर कणिका) के अनुसंधान में अरबों-खरबों की संपत्ति क्यों नष्ट करते? इसका मतलब या तो वैज्ञानिक भी अप्रत्यक्ष रूप से ईश्वर की सत्ता को अंगीकार करते हैं या फिर ईश्वरीय शक्ति को खोजकर प्रकृति पर अपना अधिकार जमाना चाहते हैं।कवि ने अपनी कविताओं में मौलिकता को अक्षुण्ण रखने के लिए जीव-विज्ञान से भी  कविता की अंतर्वस्तु को लिया है:- 
जीवकोश या कोशिका में 
बजती है जीवन-घंटी। 
प्रतिपल पुलक या क्रंदन में। 
कोशिका में है जीन्स, क्रोमोसोम 
डी.एन.ए., आर.एन.ए.। 
शरीर विज्ञान के गहरे सागर में 
जीव सृष्टि का मनुष्य 
विश्वरूप को चकाड़ोला कहता है । 
मैं चिर-रहस्यमय । 
मनुष्य के लिए अपहुंच मैं 
चिर-विस्मय भक्तों का
जीवन,मरण,पुनर्जन्म 
है,अथवा नहीं 
विज्ञान नहीं मानता ईश्वर की सत्ता 
मगर 
नाम देता है ईश्वर-कणिका । 
चकाड़ोला मुझे दिखाओ, 
तुम्हारा परिचय-पत्र  
मुझे दो 
हे रहस्यमय 
हे विस्मय  
चिर रहस्यमय 
हे मेरे स्रष्टा ।  
 इस प्रकार की चक्षुदर्शी कविताओं के माध्यम से कवि ने सनातन धर्म के मर्म को स्पर्श करते हुए "वसुधैव कुटुंबकम्" की भावना को अपनी कविताओं से विज्ञ पाठकों को परिचित कराया हैं और साथ ही साथ मानवता के खिलाफ लड़ रही विनाशकारी शक्तियों,जिसमें आधुनिक राजनीति,आतंकवाद,माओवाद को भी मिटाने के लिए चकाडोला से अश्रुल प्रार्थना भी की है । कुछ कविताएं जो उनकी पारिवारिक एवं व्यक्तिगत हैं, जिसमें अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्री के असामयिक निधन से मर्माहत होकर ईश्वर की शरण में जाकर शांति खोजना ही तो परिस्थितियों के मारे कवि के स्थितप्रज्ञ होने का  एकमात्र उद्देश्य तो नहीं है? या फिर गोस्वामी तुलसीदास की तरह बचपन एवं यौवन में भोगी गई पीड़ाओं के केंद्रीभूत हो जाने से राम को आराध्य मानकर अपनी समस्त रचनाओं में भक्ति का सहारा लिया यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। ठीक इसी प्रकार कवि बिरंचि महापात्र  ओड़िशा की सांस्कृतिक,आध्यात्मिक व धार्मिक परिवेश से ओत-प्रोत अपने जीवन की खट्टी-मीठी स्मृतियों को अपने सामने रखकर दुखों से समझौता करने या उबरने के लिए सार्वभौमिक सत्ता “चकाडोला की ज्यामिति" खींचने में अपना सारा जीवन गुजार दिया,जो उनकी मानसिक प्रक्रिया में आध्यात्मिक तत्त्वों की बहुलता के साथ-साथ विज्ञान के विषयों पर अपने जीवन-पर्यंत अध्ययन के अनुरूप मौलिकता को निखार कर नए तरीके से नव-संचरण किया है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि,कवि की कविताएं बहुमुखी होकर विभिन्न धरातलों के वैविध्य फलकों जैसे सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक,आध्यात्मिक,सांस्कृतिक विरासत की प्रवाहमान सरिता की जल तरंगों को स्पर्श करती हुई शांत-भाव से  विस्तृत सागर में प्रवेश करती है। पाँच दशक से अधिक के काल खंड में रची गई ये कविताएं जीवन के व्यावहारिक पक्ष को दर्शाने के साथ-साथ सम-विषम परिस्थितियों में भी निरासक्त,निर्भय व उन्मुक्त भाव से मनुष्य को अपने जीवन जीने का संदेश देती है। तालचेर की साहित्यिक माटी को नमन करते हुए यहाँ के अमूल्य सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने में सबसे ज्यादा सहयोग करनेवाली श्रीमती शाश्वती नाएक तथा उनके सपरिवार को साधुवाद देता हूँ।   
   
हिन्दी पाठकों से अनुरोध है कि इस ग्रंथ का अध्ययन कर ओड़िशा के बहुआयामी सांस्कृतिक व पवित्र आध्यात्मिक परिवेश से परिचित होकर अपना जीवन सफल बनाएँ। पाठकों के प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा बनी रहेगी। 

दिनेश कुमार माली 
तालचेर,ओड़िशा















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