31 से 40 तक

31
हे चकाड़ोला
सब देखते हो, सब सुनते हो
सब अधर्मी,विधर्मी,कुधर्मी
आपके सोने को चुराकर
रथ की रस्सी तरह माला पहने हुए हैं। 
इन दैत्यों का कब नाश करोगे?
पहुंडी(भगवान जगन्नाथ को झूलते-झुलाते हुए लाने की प्रथा) के समय क्यों नहीं गिर पड़ते?
हर पर्व में गर्व
अतिष्ठ कर चुका है।।
साधुओं को कब परित्राण करोगे?
दुष्कर्मियों को कब नाश करोगे?
हमारी नदियों में
हिंदुओं का  कितना रक्त बह गया हैं
गंगा माता बदला लो।
आदिशंकर के प्रदेश में बीफ और शराब का सागर
घातकों से रक्षा करने के लिए
गोवर्धन पर्वत को कब उठाओगे
हे कृष्ण?

32
तुम डमरू बजाते हो।
तांडव करते हो।
आपके प्रत्येक पद-पाद से
लाखों तारा-मण्डल जलजाते हैं।
हे कृष्ण! तुम्हारे वंशी के मोहन मंत्र में
पापी लोग धर्मी हो जाते हैं।
जो न हो
उनको मंच से फेंककर मार दो
मारो,मारो,मारो
हे नंदी,भृकुटी
मारो, मारो,मारो
ए माँ दुर्गा,
इन पापी महिषासुरों का 
कब विनाश करोगे?
हे देवी मातृ रूप में संस्थिता
शक्ति रूप में संस्थिता
माँ, माँ तुम्हें  सहस्र प्रणाम।।
33
हे प्रियतम प्रभु! मेरे चकाड़ोला,
यह बोकाड़ोला नहीं समझ पाता
काले पहाड़ के जेहादी क्या तुम्हारे भक्त है या शत्रु
उनके तोड़ते समय,गाड़ते समय,
अवरोध क्यों पैदा नहीं करते
क्यों पाताल लोक में जाकर पलायन करते हो?
तुम्हारा चक्र वक्र हो कर जेहादी जंग रोक नहीं पाता?
लालवेग जेहादी और बेटा सालवेग भक्त
हिरण्यकश्यप और पुत्र प्रहल्लाद की तरह।
आपकी लीला समझ में नहीं आती
करते हैं गर्जन, तर्जन,खालिफ, नवाब, सुल्तान।
शिया भी उनके दुश्मन
सभी उनके दुश्मन
अपने आपको छोडकर 
बीच-बीच में अपने अपनों के दुश्मन
संत्रासी के त्रास से त्रस्त हम।
और आप भी, हे चकाड़ोला! 

34
पत्थर के शैतान को
मारो कंकड़
और कंकड़,हाथ दुखेगा रुको।
फिर कंकड़।
विराट पत्थर के ढेर का शैतान।
हर साल आयतन में बढ़ता जाता है।
धार्मिकों को मारने के सिवाय
कार्मिकों को तारने वाला नहीं हो सकता है?
आकाश के बादलों में
आपकी हलचल देखी?
वज्र,बिजली आपकी दृष्टि 
आपकी कहानी कविता लिखते हैं
आकाश के तारें
पृथ्वी की सभी समुद्र तट पर रेत के कण
मेरे श्रद्धा कण।
सभी खाद्य,निर्माल्य हो जाए आमिष छोडकर।
प्रत्येक घर मंदिर हो जाए।
बाबा बलभद्र,माँ सुभद्रा हमें भद्र बनाओं,शांत करो।

35
चकाड़ोला में घूर्णित होते हैं गोल गोलक।
गोलकों से झरने लगता है ताप आलोक।
कहाँ जलते-जलते अंतिम अंगार।
कहीं निहारिका विराट
कहीं परमाणु बहुत ही छोटा।
बड़ों में लगती आग।
छोटे में लगती आग
कहीं पेट्रोल की आग।
कहीं चौक लगाते आग।
सब जलकर हो जाते शून्य।
शून्य से फिर शक्ति 
कहीं अधिक ताप वाले कृष्णगर्त्त 
कहीं मर्त्य होते श्मशान।
कहीं मर्त्य होता स्वर्ग।
कहीं पानी पर जलती आग।
कहीं विस्फोट की गर्मी से बरसता जल।




36
कहीं आनंद शक्तिहीन।
कहीं अणु शक्तिमान।
कहीं माथे पर जलती आग।
कहीं व्यथा में जलती आग। 
कहीं पेट में जलती आग।
कहीं जलाने में है धर्म।
सारे पृथ्वी को मारकर राज्य करेगी श्मशान
भस्मासुर के जलने जलाने की तरह।
हे भक्त सालवेग, दासिया
हमें चकाड़ोला अल्लाह दिखाओ ।
यीशू दिखाओ
हे दासिया बाउरी।
चावल के पानी के भीतर साग के काले में
चकाड़ोला को देखने का
आनंद चखाओ।
मैं मंदिर के भीतर नहीं जाऊंगा।
सालवेग को नहीं जाने दिया था
मैं मंदिर के भीतर नहीं जाऊंगा।
दासिया को भी नहीं जाने दिया था।
अरुण स्तम्भ के पीछे से प्रणाम कर रहा हूँ प्रभु।
अदृश्य आंसू लिए 
समुद्र कूल की ओर जा रहा हूँ।
देखूंगा लहरों में
तुम्हारी पहुंडी।

37
चकाड़ोला तुम
परंब्रह्म,
जगतजनक जगदीश्वर,
ब्रह्मा,विष्णु,महेश्वर ,
रामकृष्ण कृपा करो
माफ करो ।
मैं बोकाड़ोला हूँ
समझ गया हूँ
तुम पिता,माता,भाई और बहन
तुम ही बंधु
सभी सम्बन्धों के केंद्र बिन्दु ।
तुम सब में हो।
कहीं न होने की तरह लगते हो।
तुम घनीभूत अनुराग।
हरेक प्रेम का स्वरूप।
तुम्हारे हाथ,पाँव,चेहरा
सम्पूर्ण नहीं।
अनंत की छबि क्या देखी जा सकती है
गोल आँखों का आरंभ नहीं, शेष भी नहीं
ईश्वर का श्रेष्ठ प्रतीक चकाड़ोला।।

38
तल तो तल, पाताल पाताल
तल,अतल, वितल, तलातल,
नितल, महीतल, सुढल
सप्तपाताल नरक?
कहो चकाड़ोला
तुम्हारे होते हुए पतितपावन
कोई जीव नरक में जाएगा?
जीव तो टूटा हुआ है
जाऊंगा जाऊंगा कहता है।
इसलिए तो
हमे समझाने के लिए
नवकलेवर होता है।
जीव भीतर का चकाड़ोला
खंडित-विखंडित नहीं है।
उसे जीवात्मा कहते हैं।
उसके शरीर के वस्त्र।
वस्त्र हो जाते जीर्ण
जीव की आत्मा चकाड़ोला।
नवकलेवर होता है।
नूतन वस्त्र, नूतन शरीर, कितने दिन,
नवकलेवर चलेगा
जीव जाएगा, फिर आएगा।

39
देह की खोल
उतारने पर
चमड़ी के नीचे 
कंकाल के ऊपर
मांस, रक्त, स्नायु आवरण।
सकल यंत्र गतिमान।
स्नायु-स्नायु में रक्त-नदी ।
हृदय सागर की करती साफ
मैला रक्त लेकर
सफ़ेद रक्त छोडती
प्रत्येक अंग को।
मैले रक्त को किडनी छान कर।
साफ रक्त को हृदय को देती।
मैला जितना मल मूत्र और धर्म रूप
वर्ज्य बाहर चले जाते हैं।
कंकाल एक अस्थि बस्ती।
हड्डियों के भीतर मज्जा
मेरुदंड से मनुष्य सीधा।
माथे का मगज, स्नायु ग्रंथि, देह झिल्ली
सकल कर्म संचालन बिना किसी आलस्य 
श्वसनक्रिया की आक्सीजन से रक्त शोधन होता है।
कहीं अधिक बिगड़ने पर प्राण निगर्त हो जाते है।।


40
जीवकोश या कोशिका में
बजती है जीवन घंटी।
प्रतिपल पुलक या क्रंदन में।
कोशिका में है जीन्स क्रोमोसोम
डी.एन.ए., आर.एन.ए.।
शरीर विज्ञान के गहरे सागर में
जीव-सृष्टि के मनुष्य जगत
को चकाड़ोला कहता है।
मैं चिर-रहस्यमय।
मनुष्य के लिए अपहुंच मैं
चिर-विस्मय भक्तों का
जीवन,मरण,पुनर्जन्म
है,अथवा नहीं
विज्ञान नहीं मानता ईश्वर की सत्ता
मगर
नाम देता है ईश्वर कणिका।
चकाड़ोला मुझे अब तुम दिखाओ,
तुम्हारा परिचय-पत्र 
मुझे दो
हे रहस्यमय
हे विस्मय 
चिर-रहस्यमय
हे मेरे स्रष्टा। 

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