11 से 20 तक

11
हे मेरे उद्धत कारुण्य!
निहत तारुण्य
सर्वग्रासी संवेदन
किस तरह संतुष्ट होंगे तुम?
सभी को चाहिए अर्थ
जिस अर्थ का वास्तव में कोई अर्थ नहीं
हे मेरे दुर्विनीत दारिद्र्य!
सभी चाहते हैं प्रेम
कहते कुछ हैं मगर करते कुछ नहीं
देते हैं मुझे चरम आघात
समुद्र के बीच ग्रेनाइट के पहाड़ की तरह
जिस पर टकराती है
सारी दुनिया के खूनी आंसुओं की तरंगे
फूटती हैं कारुण्य की फुलझड़ियाँ
हाय! मैं  एक असहाय संलाप
एक तरफा आलाप।
प्रीति प्रबुद्ध  प्रलाप।।
मैं एक स्तंभिभूत डॉक्टर।
रोगी की मृत्यु सुनिश्चित।
बचाना मुश्किल।


12
विपदाओं के कोष्ठक बंधनों से
मुझे मुक्त करो चकाड़ोला
शत्रु के शिविर में मैं बंदी।
सामने हत्यारे के बंदूक
विभीषिका के मकड़ जाल के ग्राफ में
विदग्ध,विषर्ण,विवर्ण का एक बिन्दु हूँ मैं।
श्रांत,क्लांत,पराभूत सैनिक मैं,
पलायनपंथी।
मेरा शरीर, मन, मर्म में
और नहीं जो
धर्म सब परित्याग कर
शरण तुम्हारी आया अब
मेरे सारे पाप ताप को मोक्ष दो अब।
मैं अब और पश्चाताप ढो नहीं सकता।
मेरे लिए अब आप वहन करो प्रभु।
आपने तो कहा था अर्जुन को
"अहम त्वं सर्व पापेभ्यो मोक्षिष्यामि मा शुच"?


13
धरती और आकाश के बंधनों में
मैं एक बेचारा मनुष्य
मेरी देह बनी
धरती की तृष्णा से
मन व्याप्त आकाश में
और नील संतुष्टि की संभावना में
प्रीति के स्वप्न देश में
मेरा मानस हंस
उड़-उड़ कर खोजता है
हृदय का हिमालय?
मंगल में शिव
और पर्वत वासिनी माता पार्वती।
14
धरती-आकाश के सन्दूक में
मनुष्य जाति की कुंडलिनी मैं।
सन्दुक की दीवारों को
तोड़ नहीं पाता
चेष्टा करने पर, 
कोयले की कालिमा
पेट्रोल का दह ।
माप नहीं सकता छत की ऊंचाई।
छत तोड़कर उड़ने की संभावना व्यर्थ।
दिग्वलय के उस्तरे की धार पर
मैं सुप्त कुंडलिनी
बीन पर थिरकती
हे मेरे प्रियतम!
संदूक की छत
अब संचारित हो।
फन की मणि को चूमने दो
छत की छाती को।
उपशम करने के लिए
हलाहल की गर्मी को।
विष की ज्वाला को।


15
तुमने सृष्टि की विश्व की
विश्व का बेचारा मनुष्य
अपने अहंकार का बंदी।
तर्क-वितर्क की स्केल बनाकर
नापने की करता है कोशिश 
आलोकवर्ष से विश्व को।
विश्व बही के हाशिये के बाईं तरफ
खड़े होकर कहते हैं कुछ लोग
ईश्वर हैं अफीम
नि:स्व और दुर्बल लोगों का
मगर दुर्बल कौन नहीं है?
सबल कितने लोग हैं?
धमनियों में फूटते सूर्य के शत रक्तिम मंदार 
किताबों के पहाड़ के पीछे खड़े होकर
कितने मानस-टेंसिंग
स्मृति सर्कस के जोकर,
मुखस्थ और वामन पंडित।
उनकी तरह बुद्धिमान कितने
फूत्कारते हुए उठाते हैं फोटो 
इसलिए वह अज्ञेय 
वांग्मय बेपरवाह युक्ति से
जिद करते हैं 
उनकी तरह बुद्धिमान कितने
फूत्कार कर उठाते हैं फोटो
तर्क के अर्क को फेंककर
बनाते हैं
मंदिर,मस्जिद या गिरजाघर।
ईश्वर नहीं है वहाँ
इसलिए वह अज्ञेय   
इसलिए प्रयोजनहीन।।
और ज्यादा चतुर
कौए की तरह
या व्यर्थ लोमड़ी की तरह 
अंगूर न मिलने पर
कूद-कूद कर थक-हार कर
खट्टे कहकर छोडकर
प्रयोजनहीन 
कहते हैं वे।
अल्पशिक्षित ओडिया लोगों की तरह
थाली को प्लेट कहकर
दोसा कहते पतले चकुली को 
  उनके मत में
शेखचिल्ली निर्घात
ईश्वर न होते यदि
उद्भावन करना होगा
मुर्दे को वास्तव में या
चीरफाड़ करने का कष्ट
पूछने की तरह।।
अनेक फैकल्टियाँ,बाल्टियों से
तथ्य के जल को
सत्य के समुद्र में डालकर
पृथ्वी के समस्त अंतर्बोध के
समुद्र तट पर खोजते-खोजते
न्यूटनीय उपल जैसे चेतना वाले मनुष्य
सिमटकर बैठते हैं। 
महाकाश श्मशान
तारों की अर्थी जलाकर
पुच्छल तारे के जलती पूंछ को हिलाकर
उपहास करते हैं उनका
और मेरा भी।
विवेकानंद का मन
मेरा विलाप करता है
रामकृष्ण के चरणों में
भूलकर ज्ञान की गरिमा
पुकारते माँ,माँ।।

16
स्तब्ध और आक्रांत
देह के दिग्वलय  में
मन के शिखर प्रदेश पर।
मर्म के निभृत कोने में
रक्ताक्त अनुभूति
अश्रु के आँखों और लगाण में।
17
मैं बोकाडोला
चकाडोला को देखकर
खींचता हूँ जगन्नाथ की ज्यामिति?
जितने-जितने
मुग्ध नयनों से देखता हूँ,
उन आँखों की पुतलियाँ और ज्यादा 
बड़ी-बड़ी होती जाती हें।
इतनी बड़ी आँखें
विश्वरूप की आँखें
रोएँ खड़े हो जाते हैं
आँसू बहने लगते हैं 
बोकाडोला मेरा साक्षी है।
मैं एक छोटा जीव हूँ
अधीर, मधुर भाव वाला।।


18
सृष्टि,स्थिति और प्रलय का गोलक
'ॐ' ही विश्व
अबोध व्याप्ति का सीमाहीन
महाशून्य ।
निहारिका, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह
कृष्णगर्त्त 
और अनेक
असंख्य अनजान, 
बुद्धि
से परे
असंभव दूर
आलोक वर्ष
उसके भीतर जड़ और जीवन
फिर अणु,परमाणु,इलेक्ट्रॉन,न्यूट्रोन 
पोजिट्रोन, ग्लुआन
और उसके बाद भी हो सकते हैं अनेक कण।
वस्तु और शक्ति के समीकरण।
अबोध, अबोध प्रभु
तुम्हारी सृष्टि में।
जीवन कोश में फिर
जिन, क्रोमोज़ोम, डी,एन,ए, आर॰एन॰ए 
अंतहीन जिज्ञासा, अंतहीन गवेषणा।
जीवन क्या?
मृत्यु क्या?
मृत्यु के बाद भी है क्या जीवन?
अनेक प्रश्न
प्रश्नों के उत्तर
खत्म न होने वाले प्रश्नावली।
अशेष का शेष कहाँ
कहीं कुछ नहीं दिखता है।
प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है।
चकाड़ोला की ज्यामिति 
अबोध वस्तु, शक्ति और जीवन का
अप्रमेय,व्यापक,समन्वय 
हे चकाडोला!
मैं बोकाडोला क्या देख पाऊँगा
छोड़,
क्षमाकर मैं अबोध शिशु की हठ 
आपकी महान सत्ता को समझने की।

19
प्रसव-वेदना  की आग से श्मशान की आग तक
दुनिया की दोनों अग्नियां 
करती हैं  सब पर जादू।
सबको डराती हैं 
काम न, न करते आलसी करते कामना
विफल कामना के सामने खाली विलाप
संलाप, आलाप, प्रलाप।
जहां कांटें वहीं सुंदर गुलाब।
20
जन्म के समय जीव
ऊंआ, ऊंआ रोते हुए पूछता है
"मैं कौन,मैं कौन,को अहम?"
मरते समय अंतिम सांस 
देती है उत्तर "मैं वही हूँ,मैं वही हूँ,
 सो अहम?"
जन्म के समय के नरम हाथों की मुट्ठियों 
समझाती है
सभी मेरे,सभी मेरे,सभी मेरे
मरते समय खुले निर्जीव हाथ
समझाते हैं, खुलम खुल्ला,
मेरा कुछ नहीं,मेरा कुछ नहीं
मेरे साथ कुछ नहीं जाएगा
अकेला चलो,अकेला ।।

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