1 से 10 तक


नया आर्कमिडिज़ मैं।
बड़दांड की धूल से रचता हूँ चकाडोला की ज्यामिति।
अहंकारी आईएएस,
मंत्रहीन मंत्री,
यंत्र न जानने वाले यंत्री और कुसंवादी संवाददाता
मुझे चाहते है कैद करना।
इंतजार करो थोड़ा। 
अभी चकाडोला की ज़्यामिति मेरी पूरी नहीं हुई।

आगामी मादक महोत्सव में 
बोतल की झांझ बजाते
उमर खय्याम के गाना गाते 
न जिनमें दिमाग या दुख।
मगर वे मुझे धक्का देते हैं।
रक्त के आंसुओं को पोंछते-पोंछते 
मैं पूछता हूँ इतने पैसे नहीं है कि नशा उन्मूलन 
 कर रोग खरीदते हो?

उन्होंने दिया जबाब
मानो वे हो नवाब,
“हम काले बाजार की बार लाइट है।
कील गाड़ने वाली सनलाइट।
ऑफिसर के हुक्म के पतदार हैं हम।
क्षमता और धन हमारे रोम-रोम में।
इसमें तुम्हारे बाप का क्या गया?
क्या वह मर गया?”

“बाप मर गया है तो!
इस मर्मांतक घाव को वह ठीक करेगा,
तुम पर अवश्य हसेंगे,
करुणा के डाक्टर खाने।"


“साले! बात नहीं मानने वालों को टूटी बोतल से मारो।
उसके कलेजे को निश्चेत कर।
उसकी पीठ को काला कर।
उसके विवेक की हत्या करो।

“हे बंधु, बाबू,
आपके कीमती चेहरों पर
बिखरे मेरे केश 
फटे-पुराने मेरे कपड़े 
खतरों से भरा मेरा शरीर।
अपने आप को अयोग्य पाता हूँ
तुम्हारे लिए!
मारूँगा तो!
इंतजार करो थोड़ा-सा।
देखो!

इस चकाडोला की ज्यामिति के साथ
आपके अहंकार और व्यभिचार का
कोई अर्थ नहीं।
आप लोग वितंडी है 
हुँडा, गुंडा, धूसर धुंडी है
कुतर्की है
और मैं अकेला गांधीवादी मूर्ख।
समुद्र में जलती आग्नेय 
कामनाओं की अग्नि
सामने जाकर 
बुझाओगे
आप फायर ब्रिगेड बनकर।
‘पागल
मत रोको रास्ता
यह उपेक्षित रास्ता।

भारतीय नकली हिप्पी
शराब और भांग पिए कॉलेज के युवक
न कोई रोक ना रुकावट।
कॉपी करने से पास
थोपने से भी पास।
 पिता के होटल ताजमहल में
खोजते हैं कोई-कोई मुमताज।
होंगे,पर नहीं,जिनकी अच्छी आवाज।
नहीं होने पर भी, खुद को राइट कहते हुए।
फाइट करने को रहते हैं तैयार।
चूहों की ताक में बिल्ली की तरह
मेरे ऊपर बाइक चढ़ाकर
या नाले में फेंक कर
बापू के समस्त प्रतिबद्धों को न मानकर
जलती सिगरेटों से मुझे दागते 
अच्छा हुआ। 
मेरी अनिद्रा की खुमारी टूट गई।

थोड़ा-सा इंतजार करो।
थाना ले जाओगे तो!
यीशु बन गया एक अति साधारण शिशु।
मुझे स्लम डॉग मत कहो।
डॉग को उल्टा पढ़ने से होता है गॉड।
मैं गोपबंधु,गांधी का दरिद्र नारायण,
थोड़ी प्रतीक्षा करो
चकाडोला की ज़्यामिति पूरी नहीं हुई।
आएगी पुलिस।
भय किसी बात का,वे तो मेरे मामा लगते हैं 
करने के लिए मेरी शिकायत 
पैसा देने पर करने लगेंगे तेल मालिश 
पुलिस इतनी फुलिस नहीं है
कानून की करती है पॉलिश
जिससे फिसलते जाएंगे पाँव 
पैसों की भीड़ में
सूली पर चढ़ाओगे?
चौराहे की चौकी पर?
इधर मेरे नाम पर केस?
किस वेश में? 
किस दोष में?

उधर बड़दांड पर खींच जा रही थी चकाडोला की ज्यामिति 
तुम्हारा कोई घर-द्वार नहीं है?
अध्ययन कक्ष भी नहीं है।
रास्ते में कर रहे हो?”
मामा, इंतजार करो थोड़ा।

ओड़िशा के आर्कमिडिज को
चकाडोला की ज्यामिति खींचने दोगे?
आ रहे हैं डाक्टर, कंपाउंडर, नर्स
महाकाल के गुप्तचर।
ले जाने के लिए ‘अस्पाताल' से पाताल को
समुद्री लहरों की तरह।
जाने का समय हो गया है अवश्य।
बंधुगण इंतजार करो थोड़ा।
चकाडोला की त्रिज्या माप दूँ पहले।

मुझे और कुछ नहीं करना है,
कुछ नहीं कहना है
चकाडोला का इशारा होते ही
चल दूंगा मैं भी।
रुको सभी
इस सत्य के सूरज को
इस सांई के सत्य को
हृदय के लेंस से
केंद्रीभूत कर 
करुणा की किरणों को साथ लिए।
जा रहा हूँ, नमस्ते!





2
जगमगाते तारों भरी अंधेरी रात के किसी कोने में 
विश्वासघाती बिजली की धमक
‘पन्ना’ की प्रीति और प्रत्यय
विश्वास के वात्सल्य के हृदय को,वनवीर के
एक नमक हरामी कापुरूष के तलवार की चमक।

3
इस विश्व के परत दर परत छिलके हटाने से
सत्य की सत्ता को चूमने के लिए
विराग विहीन अनुराग की आत्मा को
हाय! मैं कर नहीं सकता कर नहीं सकता
लहसुन के छिलकों की तरह मिथ्या
सभी माया
शर्ट,सूट,पद और पदवी
 अहंकार व्यर्थ ही व्यर्थ।
सभी को फेंक कर मैं विदीर्ण कर देता हूँ।
अवयव जीर्ण-शीर्ण
चर्म विहीन,
अस्थि-पंजर,
खंड-खंड
चूर-चूर
सकल माया के गढ़ों पर
मैं खोजता हूँ आत्मा की मैना
हाय! मैं खोज नहीं पाता
हे बंधु! बहुत जन्म बीत गए
मगर तुम्हारी बुद्धि मुझे नहीं आई   
मेरी कामना अभी भी निष्काम नहीं हुई।
मेरे चर्म चक्षु
अणुवीक्षण-दूरवीक्षण में
अभी तक सत्य का ठिकाना खोज नहीं पाई।
सौ-सौ आविष्कारों,अन्वेषणों,
युक्ति-तर्कों की काँट-छांट करने के बाद भी
परिणाम ज्ञान मेरा शून्य
इतना सारा ज्ञान मेरे विवेक की गर्दन मरोड़ कर
पैदा करते हें असत्य के भ्रम
मैं भागने लगता हूँ
बली के फंदे से छूटे बकरी की तरह।
मेरे वक्ष में वक्षच्युत
तर्क प्रिय विज्ञान का भूत
सिर पर प्रयोगशाला से
कूद कर आत्महत्या करना चाहता है।
तर्क का काला कोट
दुर्ग-सम अन्याय के
कोर्ट की दीवारों से
कूद कर आत्महत्या करना चाहता है।
प्रीति और प्रत्यय के राग के मैदान में 
हाय! मैं कर नहीं पाता
मेरी आँखों की परिधि
चकाडोला आँखों के समुद्र की तरह
बड़ी होने पर भी नहीं कर पाती।
क्या करूंगा मैं सही में क्या करूंगा?
सभ्यता की नगरपालिका के मैले डिब्बों पर
मैं भौंकता हूँ घर के आगे काटने वाले कुत्ते की तरह
सहायता 
एकांत निर्जन।।
मेरा ज्ञान
अज्ञान भी
समांतर सरल रेखा की तरह
खत्म न होने वाली रेल लाइन की तरह
खोजता है वह अनंत-बिन्दु
जीवन और मृत्यु के जंक्शन।






  4
कार्बन, ऑक्सीजन,हाइड्रोजन
और कार्बन डाइऑक्साइड के अणु
परमाणु मिलकर
जीवन में किस तरह एनर्जी लाते हैं ?
ये अणु-परमाणु भावनाओं से जुड़कर
चैतन्य की चेतना में संकीर्तन करते हैं 
प्रेम का, विश्वास का ?
घृणा के विस्फोट के सारे स्विच बंद कर
पलक झपकते ही
ये अणु सोचने लगते हैं बैठकर
गणित के सूत्रों में
आइंस्टाइन की अद्भुत मेधा में ।
एमिनो एसिड के न्यूक्लियस को
देखना चाहते हैं ।
आणविक पर्यवेक्षण में
मेरी वेदना के टेस्ट टयूब में
मेरा अज्ञान आज रो-रो कर मरता है ।
दुनिया में सारे तटों पर
सामुद्रिक प्रीति के लिए ।
हे चकाडोला !
तुम्हारे पास प्रेम 
और
शान्ति की भीख मांगता हूँ ।

5
हे महाशून्य,निराकार,अलेख गोसांई
चकाडोला की तरह काला
राम की तरह अभिराम
विस्तीर्ण नीलिमा की
पूर्णता का स्वाद चखने की इच्छा लिए
प्रज्ञा और प्रीति का सुंदर समन्वय।


6
देह के देश में अनेक शहर, और पल्ली 
अनेक रंग-बिरंगी बल्ली
अनेक जीवनाणुओं की मुखरित झिल्ली
मस्तिष्क देह की दिल्ली
स्नायु-तंत्र सड़कों का जाल
मनन प्रधानमंत्री 
विवेक राष्ट्रपति।
कोशिकाएँ वोटदाता। 
हृदय-पिंड लोकसभा।
फेकड़े मंत्रणा-भवन।
शरीर की जितनी भी यंत्रणा
दुख,दुर्विपाक
जन्म से मृत्यु तक
इस शरीर की अनेकों कहानियाँ
घना अंधेरा
बिन्दु-बिन्दु प्रकर्णित प्रकाश।

7
मैं जानता हूँ,यह अच्छी तरह से
बाहर से, भीतर से।
मैं एक फोटोग्राफ हूँ
शरीर की फ्रेम में।
बाहर में है मेरी स्थिति
कुछ भीतर में
बाहर की स्थति 
जानते है सभी मेरी।
मेरी आंतरिक स्थिति 
तुम्हारी उस स्थिति को
मेरा नमस्कार ज्ञात हो।
मैं जानता हूँ
दूसरों से मैं अलग
आंतरिक इच्छा मेरे मुक्ति की
केवल आत्मा के साथ तर्क की
अनुभव में सुख और दुख
ये जितना अंतर्द्वंद 
उस सभी धारणा को लेकर
संगठित मेरी चिंता अंतिम सत्ता की।
नदी की तरह चेतना मेरी
समय के पहाड़ और प्रांत से होते हुए लुढ़कती जाती है।
बढ़ती जाती है
बढ़ती जाती है अभिज्ञता के कीचड़ और बालू में
मेरी चेतना बदल जाती है
फिर कुछ मुझे बदल नहीं पाती। 
अवस्था का उत्तर हूँ मैं
मनुष्य के नाम का
अवश्य सभी नहीं
हो भले मनुष्य
उत्तानपाद
जनक,ध्रुव का
परम सत्य का।
मेरी बुद्धि ने मुझे
किया है मुक्त
परिस्थिति बंदीशाला
मुझे बांध नहीं पाती ज्यादा दिन
मैं गिर पड़ता हूँ
बुद्धि की खिड़की से 
अभियान की सीढ़ी पार कर
प्रकृति की विकृत दीवार को
येन-केन प्रकारेण लांघ कर
अवस्था की व्यवस्था से आक्रांत होकर 
उत्तर या अतिक्रांत के भीतर
मगर मैं क्रीतदास नहीं
दूसरे जीव-जंतुओं की तरह
मैं मनुष्य हूँ, जीवों की सृष्टि में
इतिहास समान
मनोरम
अनुपम।
यंत्र,अस्त्र,शस्त्र
कल और कला का
कलाकार मैं ।
आविष्कार सर्जन कर
जादुई वर्णपट्ट पर मेरे वर्णाढ्य
व्यक्तित्व की चेतना मेरा रूप लेती है
नैर्वयक्तिक पुतले के
संकेतों और रूपकों में
प्रत्ययों और प्रतीकों में
मंदिर, मस्जिद और
भागवत टूँगी और गिरजाघरों में।
फिर मैं एक विकच पद्म
अस्पताल में और पुस्तक के आगे
विश्वविद्यालय में गवेषणागार में ।
पृथ्वी के पृष्ठों पर मेरे पद्म चिन्ह
कृति के स्वाक्षर
इच्छा मेरी अक्सर हो जाती है।
पृथ्वी के वक्ष पर मेरी कृति
दिखाती है मुझे अपने आंतरिक व्यक्तित्व की
झलक,रूपरेखा
अनंत आकृति।
मिलता है उसका परिचय
सौन्दर्य और रसबोध  धर्म के अनुभाग में
नैतिक चेतना बन कर
दिखा देती है मुझे आत्मा की छबि।
वह फिर दूसरे रंगों में दिखा देती है
मेधा की सहस्र मुद्राएँ
विज्ञान के अद्भुत विस्मय
जिज्ञासा की दूरबीन और सूक्ष्मदर्शी।।
मैं देखता हूँ मेरा काम
भीतर में,बाहर में
मेरी आत्मा के देश में
मेरा काम, भीतर का काम।
 मन की भावना
मर्मर के झोंकें 
कामना-वासना
आनंद-निरानंद
हंसी-रुदन।
मैं देखता हूँ मेरा काम
जितने काम बाहर मैं करता हूँ।
दूसरे भी देखते हैं 
उन सारे कामों को।
देखते हैं वे
मैं हो जाता हूँ मेरा शरीर
वे हो जाते हैं उनका शरीर।
मैं शरीर हूँ
ये समीकरण सिद्ध कौन करेगा?
क्या मैं मन नहीं हूँ?
समुद्र के समान,
थलकुल हीन
उपकूल से दूर
समुद्र के भीतर
मर्म या आत्मा नहीं हूँ मैं?
“ये सब कहकर वे
जान नहीं पाते हैं।“

8
प्रश्न का कबूतर मैं। 
तृष्णा। 
उत्तर खोजता हूँ पानी का। 
निराकार आकाश की नीलिमा को जल समझकर
भ्रम से,
भ्रम में भटकता कबूतर मैं 
उद्भ्रांत,
असंख्य आकांक्षा लिए?
तर्क-वितर्क वाले मेरे पंख 
फड़फड़ाते
प्रीति-प्रत्यय वाली पृथ्वी के जल की ओर
ध्यान दिये बगैर
मैं उड़ता जाता था आकाश में 
शांति के नील नीर की खोज में 
सारे तारों को चावल के कण समझकर।
हे पृथ्वी माता
मुझे क्षमा करो।


9
मन के गगन में
उड़ती मेरे मन की मैना।
हृदय का हंस
प्रश्नों के कबूतर
 व्यथा का बगुला 
करुणा के कपोत 
पंखों की बीणा मैं उनके
लिए संप्रीति के स्वर
संवित के शुक-मुनि
वैदिक संतों के समान
निर्वाक मौन1।।


10
मैं एक प्रताड़ित संप्रीति के 
प्रत्यय का प्रेत।
खोजता हूँ
गिरि,गव्हर,वन,प्रांत,
देवालय,
पोथी-पत्रों में,
शहर और मफ़सल में
हाट-बाजार में,
खोजता हूँ मैं अपनी आत्मा को 
परमात्मा का भग्नांश जो नहीं है,
शरीर के घर में
कैदी के रूप में व्यापक
मैं और मेरा अहंकार
"दूसरों" के कंक्रीट पथ की 
परिधी से 
टकराकर लौट आता है,
रिबाउण्ड करता है, मैं अनेक-अनेक एक।
मैं एक पराहत पर्वत
 विकसित विहंग
और मेरे विदग्ध
पतंगे की निर्यातना में
उड़ने का नील नशा टूट जाता हैं।
प्रत्यावर्तन करता है प्रेत
प्रत्यय का
युक्ति का
नीड़ में।
धूल और काले धुएँ में।
तृप्ति की तपस्या के लिए
शांति की साधना के लिए
कामना के विनाश के लिए
अज्ञान के विध्वंसक
हे बुद्ध!
तुम्हारी शरण आता हूँ।
उस बुद्धि से
निर्वाण का रास्ता दिखाओ
मगर नीरव तुम मैं देखना चाहता हूँ 
निराकार अनश्वर से गुजरते हुए
पाठ वाले ग्रीवाण 
निर्वाण को।
हे परमहंस रामकृष्ण
विवेक में आनंद नहीं अब
कहाँ है तुम्हारी माँ
विश्ववंदनीय जगत जननी
महायोगी अरविंद,
सहस्र प्रणाम तुम्हें।
मेरे हृदय का अरविंद म्लान।
मुझे सिखाओ, तुम्हारा सूर्य-स्नान।
हे गुरुदेव 'भगवान' सत्यसाई,
मेरे असत्य अहंकार में
मेरे घर के अलौकिक घटना की खिड़की से
दिखने वाले सारे धूमिल सत्य से
खोज नहीं पाता मैं साई को
सभी बंधुगण
या कोई किसी का नहीं
सभी तो मेरे देह की दहलीज पर 
मन की मेदिनी पर
श्मशान की नीरवता जैसे।
मैं अकेला
अकेला होने पर भी ढोता हूँ,
सारे हृदय की अनंत शून्यता के 
सारे पृथ्वी-आकाश को उस शून्यता में
नहीं है सूर्य,नहीं चन्द्र,नहीं तारे।
केवल अंधकार ही अंधकार
अचानक जघन्य तमिस्रा।
प्रगल्प प्रवंचन
चारों तरफ मेरे
लज्जाहीन पुच्छल तारे की पूंछ से बंधा
आँसू और खून का  कलंक
मेरे विक्षुब्ध आग्नेयगिरी के प्रस्फुटन को 
शांत कौन करेगा ?
कहाँ है वह परमात्मा
तर्क में जो नहीं मिलता। 
वितर्क में मिलता नहीं वह।
मैं प्रत्यय का प्रेत।
रोता हूँ परिस्थितिवश
प्रेम के श्मशान में।
राख़ के मैदान में 
घृणा की भयंकर काँटों में

Comments

Popular posts from this blog

21 से 30 तक

41 से 50 तक

31 से 40 तक